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Thursday, April 7, 2011

था तुम्हें मैंने रुलाया

था तुम्हें मैंने रुलाया!

हाय, मृदु इच्छा तुम्हारी!
हा, उपेक्षा कटु हमारी!
था बहुत माँगा न तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!

स्नेह का वह कण तरल था,
मधु न था, न सुधा-गरल था,
एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!

बूँद कल की आज सागर,
सोचता हूँ बैठ तट पर -
क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!


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