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Thursday, April 7, 2011

अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं

अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!

कहती है ऊषा की पहली
किरण लिए मुस्कान सुनहली—
नहीं दमकती दामिनि का ही, मेरा भी अस्तित्व यहाँ है!
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!

कहता एक बूँद आँसू झर
पलक-पाँखुरी से पल्लव पर—
नहीं मेह की लहरों का ही, मेरा भी अस्तित्व यहाँ है!
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!

टहनी पर बैठी गौरैया
चहक-चहककर कहती, भैया—
नहीं कड़कते बादल का ही, मेरा भी अस्तित्व यहाँ है!
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!


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