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Thursday, April 7, 2011

हम कब अपनी बात छिपाते?

हम कब अपनी बात छिपाते?

हम अपना जीवन अंकित कर
फेंक चुके हैं राज मार्ग पर,
जिसके जी में आए पढ़ले थमकर पलभर आते जाते!
हम कब अपनी बात छिपाते?

हम सब कुछ करके भी मानव,
हमीं देवता, हम ही दानव,
हमीं स्वर्ग की, हमीं नरक की, क्षण भर में सीमा छू आते!
हम कब अपनी बात छिपाते?

मानवता के विस्तृत उर हम,
मानवता के स्वच्छ मुकुर हम,
मानव क्यों अपनी मानवता बिंबित हममें देख लजाते!
हम कब अपनी बात छिपाते?


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